Thursday, December 1, 2011

ये देश किसका है ? 

    आज हम अपने चारों ओर देख सकते हैं कि हफडा=दफ्डी मची हुई है , सब को अपनी-अपनी पड़ी हुई है | हम यहाँ देश की बात कर रहे हैं जबकि हालत ऐसी है कि लोग घर के सदस्यों को पहचानने के लिए तैयार नहीं हैं| 
    जिस सवाल को ले कर यहाँ बात शुरू की गयी है , अगर उस पर बात बढ़ाएं तो क्या यह बहुत मुश्किल प्रश्न है ? क्या इस का जवाब सहज नहीं हो सकता कि यह देश मेरा है या हमारा है| यह प्रश्न उठता ही क्यों है या उठे ही क्यों |
    सात दशकों की आज़ादी के बाद अगर देश अपना=अपना सा न लगे तो आप इसे क्या कहेंगे?
आप सोचते होंगे कि यह सब मैं किस आधार पर कह रहा हूँ | हर रोज भारत माता की जय बोली जाती है, हर स्कूल में बच्चे राष्ट्र गीत गा कर दिन का आरम्भ करते हैं | चलो आप की बात मान लेते है और  यह भी सच है कि आप आज़ाद भारत की पैदायश  हो ओर आप ने भी इसी तरह देश का गुणगान किया है \ क्या आप ने स्वयं छाती चौड़ी कर के गर्व से कहा है ? आखिर कौन रोकता है आप को ? 
     हर रोज सुबह जब आप समाचार -पत्र खोलते हो और मुख्य पृष्ठ ही आप के दिन की शुरुआत उदासी व निराशा से करे तो कैसा लगता है ? अगर हर रोज दस समाचारों में लगभग नौ आप को अँधेरे की खाई में ले जाने वाले हों तो ?
     इस तरह के हालातों का देश अपना नहीं हो सकता ना ?
'इंडिया सायनिंग' व 'भारत निर्माण' के विज्ञापननुमा गीत सुनकर , लाखों रूपये खर्च कर के , ऊँची आवाज़ में चीख-चीख कर यह कहना कि हमारा देश कितना महान है , कैसा प्रभाव देता है ? यह तो हम सब को महसूस होना चाहिए |
     बात है देश को अपना समझने की कि कोई ऐसा महसूस तो करे कि यहाँ सुख-चैन से जी रहा है | जबकि हालत ऐसी है कि व्यक्ति को ऐसा लगता है कि वह चैन से मर भी नहीं सकता |
वास्तव में यह हालत तभी पैदा हुई है कि आप देश को अपना नहीं समझते | इसीलिए कुछ लोग अधिकार से इसे बीच रहे हैं | इसे यूं मत लें कि कुछ लोग देश को बीच-खा रहे हैं , इसलिए यह मेरा नहीं है | कोई एक अकेला या कुछ लोग इस देश के मालिक नहीं हैं |
     देखिये ! एक बार इसे अपना कहना सीखिए , इसे अपनी आदत बनाइये ,फिर यह आप को अपना-अपना भी लगेगा और देश बेचने वाले के प्रति रोष भी होगा | शुरू तो करिए |



इस सप्ताह का विचार :

दिया जलाना
जब भूल गया तूं |
तो रात बोली -
सूरज का इंतजार 
अब ना करना तूं |
  



 

Thursday, November 24, 2011

 इस बार एक लघुकथा के बहाने : 
                             डर
      पैसेंजर गाड़ी का भरा हुआ डब्बा | खिड़की के एक तरफ बैठी नौजवान लड़की ,ब्याहने से भी कम उम्र की लगती, पर गोदी में बच्ची बैठी है | सामने वाली खिड़की - सीट पर उस का पति बैठा है | वह दोनों बच्ची में मस्त हैं | बच्ची कोई छह=सात महीने की है |
   उस बच्चे वाली  औरत के  साथ एक काली- कलूटी बूढी औरत बैठी है | उसकी  उम्र के बारे में बस अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है | अगर उस  से पूछोगे तो कहेगी -पता नहीं ! वैसे भी हालत से तो लगता  है उम्र को याद कर के लेना भी क्या है ! चेहरे पर चर्बी के नाम की कोई चीज नहीं है | दांत न होनें    के कारण , वह और भी पिचका हुआ लगता है |
       मैं  उस काली बूढी औरत के सामने बैठा हूँ | उस बच्ची के  पिता के साथ | मरे पास एक पढ़ी-लिखी लगती औरत आ कर बैठ  गयी है | तीन=तीन सीटों वाली जगह पर छह =छह  लोग बैठे हैं , जो खड़े हैं वो अलग |
       माँ-बच्चा हँस खेल रहे हैं | उस ने बच्चे की बाहें पकड़ कर उसे खड़ा किया हुआ है | मेरे साथ बैठी औरत भी उस में दिलचस्पी दिखा रही है |
      एकदम बच्ची रोने लगती  है | उस की माँ बोलती है ,' डर गयी है |' उसका भाव स्पष्ट है कि बच्ची साथ बैठी औरत को देख कर डरी है | वह  औरत जो एक गठड़ी सी बनी बैठी है | वह कुछ चबा रही है | उस ने अपने एक हाथ की मुट्ठी में कस कर रोटी  पकड़ी हुई है | रोटी वैसे नज़र नहीं आ  रही है | वह एक छोटी सी बुरकी तोडती है और धीरे से मुंह में  रख लेती है |  
       बच्ची एक बार चुप कर चुकी है | माँ  उस का ध्यान , इधर-उधर लगाती है | पर वह फिर रोने लगती है | मेरे साथ बैठी औरत का ध्यान बच्ची में  है |माँ एक बार फिर कहती ही ,' देखती भी है और डर के रोती भी है |' और उस का चेहरा बाहर खिड़की की तरफ  करती है या अपने  पति की ओर |
       मैं सोचता हूँ कि क्या बच्ची सचमुच उस बूढी औरत से डर रही है ? क्या उस का चेहरा डरावना है ? बच्ची तो इस का जवाब नहीं दे सकती , पर सच मानिये , ऐसे चेहरे देख कर डर लगना ही चाहिए | ना मालूम हमारे देश के कर्णधारों को ऐसे चेहरे दिखते नहीं या वे इस तरह की डर की भावना से ऊपर उठ चुके हैं |
     बच्ची के फिर रोने पर  मेरे साथ बैठी औरत, उस की तरफ एक बिस्कुट बढाती है | उस की माँ कहती है,'अभी खाती नहीं , अभी सिर्फ दूध पीती  है |'
       औरत अब बिस्कुट के बढाये हाथ के साथ यह भी जोडती है ,'क्यों नहीं खाती ,खिलाएगी तो खाएगी | अब इस का तेरे दूध से क्या बनता  होगा ? ' उस की आवाज़ में एक अधिकार है  |
       इतना सुन कर वह बिस्कुट पकड़ लेती है | 
         ' जरा सा तोड़ कर इस के मुंह  को लगा , यह इस को चूसेगी तो खाया जायेगा |' वह खाने का ढंग भी    सिखा रही है |
        बच्ची बिस्कुट को होंठों में ले कर चूसने लगती है | उसने  बिस्कुत हांथों में पकड़ लिया है | बच्ची के हाथ मुंह खराब कर लिए हैं | माँ-बाप बच्ची के हाथ धोते हैं ओर मुंह साफ करते हैं |
        साथ बैठी बूढी औरत ने रोटी  खत्म कर ली है |
        बच्ची अब फिर उस की तरफ देख रही है | 
         बूढी बच्ची को अपने पिचके मुंह से हँसाने का प्रयास करती हुई बोलती  है ,' इस भैनजी की बात ठीक है , रोटी  खिलाया कर इसे ,रोटी ना मिले तो भी बच्चे ...... रोते हैं | '
         मुझे लगा जैसे उस ने पहले रोने की जगह डर बोलना चाहा है |

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Friday, November 18, 2011

इस बार तीन तोंके 
दुखों की दवा
खोज हुआ मानव 
दवा में दर्द
मिलाने लगा जब 
बना वो जानवर 








समस्या टली
आँख मुंदने पर 
यूं मत टाल 
मानव है तूं प्यारे
हालात को संभाल









वही ही बांस
है बांसुरी बनता 
सीने पर जो 
करवा कर छेड़
है संगीत जन्मता 

Thursday, November 10, 2011

स्वास्थ्य और दवाइयाँ
    दवा और सेहत का रिश्ता ,मानव के साथ तब से है जब से उस ने होश संभाला और अपने दर्द से छुटकारा पाने के लिए फिकर्मंद हुआ व इस के लिए कार्यशील भी हुआ .
    दवा और सेहत , दवा और दर्द  से  छुटकारा -यही तो अंतिम लक्ष्य है और इसी लक्ष्य के परिणाम स्वरुप ही दवाइयों का अविष्कार हुआ .
    ऐसे विकास ,ऐसी परम्परा व ऐसे इतिहास के होते क्या कभी सोचा भी जा सकता है कि हम या हम मैं से कोई दवाइयों को माध्यम बना कर सिर्फ मुनाफा ही नहीं कमाएगा बल्कि इस जीवन प्रदान करने वाले अविष्कार के जरिये , लोगों को मौत के सन्मुख ले जायेगा .
    यह कोई ख्याल नहीं है जो यूं ही मैनें आप से बांटा हो, यह एक सच्चाई है .एक तथ्य भरपूर सच्चाई. यह तो आप ने सुना व महसूस किया होगा कि नकली दवाइयों का एक बाज़ार है. यह बाज़ार कोई मामूली हैसियत  या अहमियत का नहीं है बल्कि एक विस्तृत साम्राज्य के बराबर है .
पहली बात तो यह है कि हम इस तथ्य से परिचित हों कि दवाइयों को व्यापर दुनिया मैं लाभ कमाने वाला दूसरा सबसे बड़ा उद्योग है और पहला है =जंगी सामान बनाने का उद्योग . सुनने मैं दोनों नाम एक दुसरे के विपरीत लगते हैं पर वास्तव मैं यह एक ही मंतव्य के लिए बने लगते हैं .
     आप को आश्चर्य हो रहा है शायद ! मैं भी यहाँ बात बड़ा चढ़ा कर नहीं कर रहा हूँ. वैसे तो यह सिलसिला विश्वव्यापी है , पर अपने देश की स्थिति पर नज़र डालें तो , आज की तारीख मैं हमारे देश मैं लगभग ५५००० करोड़ का नकली दवाइयों का वयापार है.  
  इस व्यापार के लिए आप किस को दोषी ठहराएंगे ? अगर देखें तो यही मुद्दा है वास्तव मैं विचारने का . और यह इतना पेचीदा है कि इस की तह तक पहुंचना कोई आसन कार्य भी नहीं .
    यह एक पूरी तरह व्यवस्थित बाज़ार है या कहें कि एक ऐसी अपराध से जुडी प्राणाली है. इस मैं दवा व्यापर से जुड़े घराने , दवा कि कम्पनिओं मैं खोज कर रहे वैज्ञानिक , दवा का प्रचार करते मेडिकल रेप्र्सेंतेतिव ,उन कि बात मान कर पर्ची लिखने वाले डॉक्टर , दवाइयां बेचने वाले केमिस्ट व बिना पर्ची के दवा खरीदने वाले आप ..............
   अब बात आप पर आ कर रुक गयी या आप से सुरु होने लगी है . आप इस मैं क्या योगदान डाल सकते हैं ?
   आप सोचिये .... फिर इस पर बात जारी रखेंगे .

Friday, November 4, 2011

मुद्दा - ए -भ्रष्टाचार 
  कम से कम आज हम कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार  एक ऐसा मसला है जो सब की जुबान पर ही नहीं बल्कि सब की विचार चर्चा का हिस्सा बना हुआ है . 
अब मैं अपनी कही बात का ही विरोध करता हूँ कि यह सच नहीं , अगर आप को जंचता नहीं तो यह पूरा सच तो कतई नहीं है .
  क्या जो मीडिया दिखा रहा है वह सही है या जो उसे अच्छा लगता है वही दिखाता है या यूं कहें कि जिस से उसे लाभ होता है , उसी तरफ रुख कर लेता है .
चलो छोडो इस बात को और असली मुद्दे पर आते हैं कि वास्तव में भ्रष्टाचार  है क्या ? मेरा कहने का मतलब क्या पैसे का लेन देन ही भ्रष्टाचार  है ? अगर सभी के नहीं तो बहुतों के मन में भ्रष्टाचार  का यही संकल्प है .
  भ्रष्टाचार  के शाब्दिक विश्लेषण मैं जाएँ तो यह दो शब्दों =भ्रष्ट आचार से बना है . इस का अर्थ आप स्वयं जान सकते हैं कि किसी भी  तरह का भ्रष्ट व्यवहार इस के दायरे में आता है . एक बार फिर आप इस दृष्टिकोण से अपने अंदर झांक कर देखिये कि क्या आप के व्यवहार में सब सही है . अपने इर्द -गिर्द में , अपने व्यापक घेरे में , घर -परिवार से कार्य स्थल पर , धार्मिक संस्था के आँगन से समाजिक कार्यों कि व्यवस्था तक फैले अपने व्यवहार की छान -बीन करिए और किसी नतीजे पर पहुँचने का प्रयास करिये , निश्चित ही आप किसी ठोस परिणाम पर पहुंचने में अवश्य कामयाब हो जायेंगे ,
  इस सारे मुद्दे से अभिप्राय यह है कि हम भ्रष्टाचार के पहलू को सीमत कर के न आंकें . जब हम इस के व्यापक सन्दर्भ को समझ लेंगे तो इस को जढ़ से उखाड़ने वाले पक्ष को भी उसी दिशा में में केन्द्रित कर पाएंगे .
  भ्रष्टाचार के मुद्दे को इस रूप में समझना इस लिए भी जरूरी है कि हमारा मकसद तो इस अलामत  से छुटकारा पाना है और वह तभी संभव है अगर हम किसी भी समस्या को उस के सही परिपेक्ष्य में पहचानें .  

Sunday, October 30, 2011

swaal hi swaal

    सवाल - क्या  जरूरी हैं जिंदगी में ?
    सवालों से घिरा वातावरण क्या परेशान नहीं करता ? आप सुबह सवेरे चाय का कप ले कर बेठे हैं और आप के हाथों में पकड़ा अख़बार इतने सवाल खड़े करता है कि आप अपना सर पकड़ लेते हैं
अब आप दूसरे दृष्टिकोण से सोचिये कि मानव ने आज तक जितना भी विकास किया है, वह उसकी प्रश्न उठाने की प्रवृति के कारण ही संभव हुआ है .
   खेती -बाड़ी से ले कर दवाएओं के अविष्कार तक , अगर हमने किसी को श्रेय देना हो तो वह होगी मानव की जिज्ञासा वाली प्रवृति . उसका क्यों व् कैसे से जुड़ा स्वभाव . कोई व्यक्ति बीमार हुआ तो पहला सवाल उठा कि ऐसा क्यों ? और फिर मानव उस का    हल ढूंढने में जुट गया . 
इस दृष्टि से सवालों के संकल्प को लेंगे तो    निश्चित ही हम न तो सवालों को    झेलने से घबराएंगे और न ही सवाल उठाने में हिचकिचाहट महसूस करेंगे. किसी भी समस्या का हल ढूंढने के लिए पहला अनिवार्य कदम सवाल उठाना ही है . समस्या को समझने , उस कि जड़ को खोजने के लिए पूछताछ का महत्व है. इस से हमारी विश्लेषण करने की क्षमता  बढती  है . इस लिए सवालों से विचलित नहीं होना है . बल्कि सवालों के बल पर भविष्य को ओर अधिक उज्वल बनाना है.
   पर आज के परिवेश में मुश्किल यह है कि हर तरफ सवाल ही सवाल हैं और जवाब कहीं नज़र नहीं आता है . या तो जवाब देने वाले ही नहीं है या फिर जवाब ऐसा मिलता है कि बौखलाहट होती है .यह स्थिति फिर कुंठा का कारण बनती है और मानसिक रोगों कि बुनियाद का काम करती है. इसी लिए शायद इस इकीवीं सदी को मानसिक रोगों की सदी कहा जा रहा है .
   इस लिए जरूरी है कि अपने आप को सिर्फ सवाल उभरने व उनका हल तलाशने तक ही महदूद न किया जाये बल्कि एक सरगरम भागीदारी के लिए आगे बढ़ कर क्रियाशील  हुआ जाये .